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वक्त कब हारा

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My own poem based on my own feelings, my own observations.

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वक्त कब हारा, हारे वक्त से सब,
मिला ही क्या कुछ, तो खोया कब
जो हुआ सो हुआ, जो होगा सो होगा,
हाय रही या दुआ, सबने मिलके भोगा

सर कलम हुए, सर बचे भी, इन सरों ने सारा संसार रच डाला
सौदा करते रहे सरेआम सौदाई, कुछ बेसबब कुछ देके गवाही
कि कुछ सरों ने की हिमाकत और कुछ सरों का हुआ निवाला
कुछ सरों ने क्या चाहा और क्या ही कर डाला
दिवाली की जद में निकला बस बेबस सा दिवाला
कौन किसके हवाले, किसे किसका हवाला
कातिल ने अनजाने ही कत्ल अपना ही कर डाला
कोई किससे कहे इस किस्से का यह हिस्सा
अपनी ही कहानी का यह आखिरी मसाला
रूबरू जब हुए तो रूह न थी, रूहस्त थे तो हमने भी खूब टाला
चाभी की थी किसको, सब रहे खोजते जिंदगीभर कोई ताला
समुंदर के बीच में जीने का था मौका, पर सब जीए होके नाला
हकीकत हो तो कोई यकीनन नहीं जीता, जिंदगी है बस खयाला
मौत से जाना जीने का फलसफा, पर जीए कैसे अब मरनेवाला

Veerendra KushwahaLast Seen: Aug 9, 2023 @ 12:46pm 12AugUTC

Veerendra Kushwaha

@Veerendra-Kushwaha





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