अब कहां वो सावन आता है
बादल भी मंद मंद मुस्काता है
वो हफ्ते भर की बारिश कहां
तन छोड़ मन भी सुखा रह जाता है
वो सांझ का सूरज देख कर
कहां भोर का अहसास कराता है
वो गलियों में नाव चलाना छोड़
नदियों में मल्हार बिन पानी चिल्लाता है
वो छतरी बंद कर भीग के स्कूल से आने वाला
अब छतरी खोल के धूप से छुपकर आता है
वो बादल में इन्द्रधनुष के सातों रंग
अब कहां कभी दिख पाता है
वो अरवी के पत्तों पर मोतीयों सी चमकती धार
क्या मोटर के पानी से आ पाता है
वो धान के खेतों का कमर तक डुबे रहना
किस्सों में ही सुनाया जाता है
वो मेंढक का टर्राना सुनने को
अब कान तरस सा जाता
बारिश से भींगे सावन का
मन फिर से आश लगाता है
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