देखते ही देखते बचपन गुजर गई
अभी भी, तलाश है बीती हुई यादों की
वह नादानियां और उन प्यारी प्यारी बातों की
ढूंढता हूं खुद को हर तरफ हर जगह
वह गांव के बगीचों में तो कभी अपने ख्वाबों में
हर दिन एक नए मौसम से खुशियां बहारते
उन तितलियों के पीछे नंगे पांव भागते
कभी गिरते तो कभी संभलते
मानो पूरी कायनात एक कर डालते
याद आती है वह बचपन की रातें
वह दादी के कहे परियों वाले किस्से और
टूटे तारों को देख कर आंखें मूंदकर wish मांगते!
काश लौट पातें फिरसे उन गलियों में
जहां से आंखों में कुछ सपने लेकर चले थे
जहां पंछियों के झुंड दाने के लिए लड़ते थे ,
वै झरने जो पर्वत से बैहकर ,एक सुनहरी सुबह खेतों की मिट्टी को सोना बनाते ,जहां हवाएं फसलों में हरियाली लाते थे
वह संकरी गलियां जहां हम बेख़ौफ़ हो कर अपनी धुन में गुनगुनाते फिरते
काश ,काश कभी उन बचपन में फिर से लौट पाते!
वो दिन भी कमाल के थे
ना ही किसी से दुश्मनी थी और ना ही किसी से नफरत खुद की दुनिया में मगन रहते
बस हाथ में एक डंडा और दादा जी की पुरानी साइकिल के टायर ,जिसे लेकर पूरे दिन दोस्तों के साथ घूमते रहते,
कभी-कभी कंचे भी खेलते थे
मां के मना करने के बाद भी ,जब पकड़े जाते तो
बड़े मासूमियत से गाल आगे बढ़ा देते,
शैतानियां मेरे दोस्त करते और बाद में मुझे फंसा देते
कई दफा चूरन वाली पुड़िया लेने के लिए अठन्नी भी चुराते थे
बेशक डाट तो पढ़ती थी मगर हम भी ढीढ हो चुके थे!
घर के आंगन और गांव में पले – बङे
पूरी बचपन बेखौफ होकर जिए और
आज यहां इस युग में न जाने कैसे फंस गए!!!
न जाने कहां कैद हो गए हैं
इस चकाचौंध की दुनिया में
ना ही अब वह बचपन रहा ना ही वह मौसम
पर हां वह बचपन की यादों का पिटारा अभी भी मेरे जहन में समाया है,
क्योंकि मेरे लिए तो बचपन की वो यादें
खजाने का पिटारा है!!!!
~Anurag
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