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किसानी

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    12th September 2024 | 21 Views | 0 Likes

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    किसानी

    दूर कहीं पहाड़ों के पीछे,
    एक परिवार था ,किसानी थी।
    दो बैल भी थे,एक कुत्ता था।
    दो बीघे में फसल उगानी थी।
    अम्मा का चश्मा टूट गया,
    किसान का बटुआ शहर में छूट गया।
    बैलों का चारा सूख गया,
    सावन भादो अभी बांकी था,
    और खाद बीज भी लानी थी।

    इस फसल पे सबकुछ दांव पे था।
    खेत की मिट्टी प्यासी थी।
    बरसात बिना सब उदासी थी।
    दिन एक एक कर गुजर रहे,
    आसमान में दूर तलक,
    बादल का एक विचार नहीं।
    क्यों स्वदेश क्या सोच रहे,
    किसानी से मुश्किल कोई रोजगार नहीं।।

    बेटे को दसवीं कराना था,
    अफसर सरकारी बनाना था।
    महीने का किराना लाना था,
    रसोई में सरसों तेल नहीं,
    बिटिया चौबीस की बिन ब्याही थी।
    कल लड़के वालों को भी आना था।
    बूआ के घर अगले महीने,
    तीज भी लेकर जाना था ।

    लाला भी घर पे आ बैठा,
    पिछला हिसाब दिखा बैठा।
    खेत के कागज गिरवी थे।
    नियति की कैसी कलाकारी थी।
    बेटे ने बापू से पूछ लिया,
    पगड़ी रख दी पांव में क्यों,
    ऐसी भी क्या लाचारी थी।

    दूर देश में है एक चीनी मिल,
    पर काम की मारामारी थी।
    बारह घंटे काम के थे,
    सौ रुपया मजदूरी थी।
    बिटवा की पढ़ाई छूट गई।
    किस्मत ही जबसे रूठ गई।
    घर का वो अंतिम आशा था,
    बूढ़े का वो सहारा था।

    कलम किताब सब छूट गया।
    आंखों का सपना टूट गया।
    लड़कपन पीछे छूट गया।
    बहना भी उसको प्यारी थी।
    वो मोह गांव का छोड़ गया,
    फिर घर की जिम्मेवारी थी।
    स्कूल का एक और होनहार,
    मिल का मजदूर बन बैठा।

    पहली बारिश की बूंद गिरी,
    आंखों में रौनक किसानों के।
    जोड़े लाला के हांथ पांव,
    लाकर खाद बीज फिर खेला दांव।
    बोला सारे कर्जे चुका दूंगा,
    गिरवी खेत छुड़ा लूंगा।
    खून पसीना बहा दूंगा।
    बैलों से खेत को जोत दिया।
    नमी देख बीजों को रोप दिया,
    दो हफ्ते जब बीत गए,
    मौसम गुजरा, बरसात नहीं। 
    धरती फिरसे सूख गई।
    मिट्टी थोड़ा भंगुर ना हुआ,
    एक दाना भी अंकुर ना हुआ।
    प्रकृति का ये कैसा छलावा था।
    क्या यमदेव का बुलावा था। 
    दोनो बैल भी बेच दिए।
    लाला ने खेत भी लूट लिए।

    जब कोई सहारा दिखा नहीं,
    परिवार शहर को चल बैठा।
    एक झुग्गी और बढ़ गई शहरी बस्ती में,
    फिर एक किसान मजदूर हुआ।
    जाओ पूछो सरकारों से,
    गरीब क्यों किसानी से दूर हुआ।
    क्यों नियति को मजबूर हुआ।

    आज भी वही कहानी है,
    जुआ ही है जो किसानी है।
    बुढ़ापा रह गया गांवो में,
    शहरो में गांवों की जवानी है।
    नहरों का जो पानी है।
    उसे हर खेत पहुचानी है।
    किसानों के घर खुशहाली हो,
    तभी समृद्धि आनी है।
    पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ी गई,
    दुखभरी ये रामकहानी है।

    हमने तुमको अपना नेता चुना,
    तुम हमको ही भूल गए।
    गरीबों का बेटा क्यों मजदूरी में,
    तुम्हरे नवाब क्यों बोर्डिंग स्कूल गए।

    नाले का पानी आता है क्यों,
    हम गरीबों के नल जल में।
    पानी के फव्वारे हैं,
    क्यों कंक्रीट के जंगल में।
     है जिनका पसीना धुआं हुआ।
    उन अभागे बेघर मजदूरों को भी,
    वापस से गांव लौटाना है।
    खुशियां लाओ किसानों में तुम,
    गर सोने की चिड़िया बनाना है।
    खुशियां लाओ किसानों में तुम,
    गर सोने की चिड़िया बनाना है।

    कॉपीराइट -स्वदेश सुमन

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