नारी हूं मैं ।
पैदा होने से पहले, मार दी जाती हूं
अगर कहीं रख भी लिया मुझे, तो बोझ बन जाती हुं
मां नाजों से पालती, पिता जी ने खूब प्यार दिया
चलो किस्मत अच्छी मेरी, पर समाज ने लड़की कह धिक्कार दिया।
खुल कर नही हंसना,यही बचपन से सिखाया जाता है
कभी हंस दिया, खिल–खिला कर गलती से तो मेरा चरित्र आड़े आ जाता है
मंद–मंद मुस्कुराते हुए, हंसना भूल गई मैं
इस खूबसूरती के दल–दल में कही खो सी गई मैं
कभी फूल बनके ,खिल जाती हूं मैं
कभी पैर की धूल बनके उड़ जाती हूं मैं
कोई कितना भी लिख ले मुझे पर तानों के शेयर
किताब के पन्ने बन, सब सह आखिर बंद कर दी जाती हूं मैं।
कुछ बोलना हो तो ,हवा की तरह चुप– चाप सब कह जाती हूं मैं
जरूरत के हिसाब से मिट्टी की तरह , हर ढांचे में ढाली जाती हूं मैं
सींचा जाता है बचपन से मुझे बड़े प्यार से
आखिर फल–फूल कर ,तोड़ ली जाती हूं मैं
सुबह की लालिमा की तरह खूबसूरत सी खिलती हु मैं
संध्या की लालिमा की तरह मुरझाती हूं मैं
सिर ऊपर कर लिया, तो बढ़ती हुई घास की तरह काट दी जाती हूं मैं
हर कठोर काम किया, फिर भी कोमल कहलाई मैं
हर बार परीक्षा ले–ले कर, खून के आंसु रुलाई गई मैं
छोटी हूं तो प्यारी हूं मैं, कुछ बड़ी हुई तो बोझ भारी हूं मैं ,
हर किसी ने सामान समझा, क्या ऐसी भारतीय नारी हूं मैं।
तुमने कहा तो बेटी तो बनी मैं, तुमने कहा बहु , तो बहु बनी मैं,
धर्म मेरा है भार्या का, तो भार्या से जननी बनी मैं
सारे सपने भूलकर, अपना घर छोड़ कर नारी बनी मैं
इस सबके बाद भी , नाम न मिला कभी मुझे
कभी पिता की बेटी तो, पति की पत्नी रही मैं
सब से ठोकर खाई, आखिर में मां बनी मैं
पाला–पोसा अंचल में अपने, पूरे कर दिए संतान के सपने
बुढ़ापा आया तो , तो कचरा बनके कोने में जा फिकी मैं
आ ही गया वो समय, जब चार कंधो पर उठा ली गई मैं
फिर भी उन चार में से एक ने कह दिया की जरा भारी हूं मैं।
हंसी आई खुद पर मुझे, चलो ये भी ठीक है क्योंकि नारी हूं मैं–
– दीपशिखा
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