तप है कोई?
घङी-आघ धङी से मग्न मुग्ध
नज़र गड़ाए ठंडी लहरों पर,
चुपचाप बैठे।
शांत-सरल स्वभाव अलग
ये कैसी मुंहचोरी हैं?
अपने नुकीले चोंचों में
दबा के फफलाति भाप
कब से देख रहा है,
गहरी उकताहट के साथ
पोखर में हिलोरते खरपतवार,
पानी में डगमगाते सिंघाड़े,
लहरों पे बलखाते कीट,
नीलकमल में नभ का रस।
सेंक रहा सिंदुरी धुप की किरणें
अचाह ही उग आई
तिमरी-सुकुरी
जलकुम्भी के डण्ठलों पर।
फेर लिया है समाज से मुंह,
मानो बर्फ से सिके रूई के पंखों
में समेटे लिया
हो पूरे
जग का रोष!
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