क्षणभंगुर में पार गया टाप को
खाली छूटा बँसवारा आंखें लपकी
टपकी आ दर्भ ऊसर उर्वी पर
पास ही पसरा है ढाभ को
उपलों पे बसा सुकुरा गांठ उमगा
कहीं-कहीं पर क्यारी गया लांध
दुव की नरम सीकें जाता चर गलाता
किसी आंगन के बाग को।
दर्पंन-रूप कईयों के भाव का
चिरैया का वन-बाग सा
वीराने घाट का सहचर बना मित्र
समसान के आग को
तरा तलइया के सिंच फल
चढ़ा सावन के नभ फिर आ गिरा
भर-भर सरि-तल आतुर मिटाने
सागर सी प्यास को।
Comments