शायद…

    1
    0

    21st October 2024 | 7 Views | 0 Likes

    Info: This Creation is monetized via ads and affiliate links. We may earn from promoting them.

    Toggle

    हर तरफ कितना शोर था

    आंधियों की रुख में भी ज़ोर था

    फ़िज़ाओं में बादलों का दौर था

    शायद मैं ही कमज़ोर था…

    सूरज की आग़ जल रही थी

    बारिश की एक बूंद तक ना थी

    हर तरफ़ सूखे सा मंज़र था

    शायद मैं ही तर बतर था…

    दिन कब का बुझ चुका था

    शाम कब की ढाल चुकी थी

    रात भी जग चुकी थी

    शायद मैं ही ख़ुद में कैद था…

    वक़्त आगे बढ़ जा रहा था

    सफ़र मंज़िल की और चले जा रहा था

    रास्ते अपने मोड़ बदलते जा रहा था

    शायद मैं ही बे-मंज़िल बढ़ते चला जा रहा था…

    नैनों में इकरार भी था

    इश्क़ भी बेक़रार था

    लफ़्ज़ों का आदान भी था

    शायद मैं ही ख़ामोशी भरे जा रहा था…

    ज़माने की बातें नाकाम थे

    रिश्तों में खट्टे-मीठे स्वाद भी थे

    सब के सब नामदार भी थे

    शायद मैं ही बदनाम हुए जा रहा था…

    शायद…शायद…शायद…

    [आनन्द कुमार गुप्ता ]

    You may also like