प्रेम मेरा कभी पाओगे भी या युही बिखर जाने को
प्रिय मुझे अकेला तुम बिरह की अग्नि मे जलने को
छोड़ चले जाओगे क्या यहा, युही मिट जाने को
प्रेम जो परे है पर समझ पाने को
क्या तुम्हें प्रिय कभी उसकी अनुभूति हुई
या सिर्फ छल मात्र से तुमने पाया इस देह को
क्या तुमने अहसास मुझे दिलाया वो
अथाह समुन्द्र से भी गहरा प्रीत की गांठ जो
जुड़ी थी तुमसे प्रिये न जाने कब से
जिसे खोलकर क्यू तुम आज आतुर हो
बिरह बेदना मे अकेला रहने को
मिटा सिंदूर की रंग भरी उपहार वो
सिवा तुम्हारे प्रिय अब कौन है कहने को
न जाओ यू मुझे इस राह पे बेसहारा
क्या तुम्हें याद नहीं प्रिय हमारा वो
प्रथम मिलन की अनुभूति अनुपम जो
या ये सिर्फ बिलास पूर्ण प्रतिबिंब जीवन का
कहि आज जो है मेरा, कल वो जाए न खो
अपनी व्यथा किससे कहु अब तो
जीवन की हर राह कठिन है
मेरी पहचान प्रिय तुम, पर
तुमसे अब न चाह कोई हो
अपने जीवन की अभिलाषा वो
किससे कहु अब किसे पुकारु
प्रेम तुम मेरे हो पर प्रेम की पूर्णता नहीं
तुमसे अब प्रीत की बाते हो
लगता है मुझे न हो पाए प्रिय
जीवन के इस महासमर मे
फिर वो प्रेम की कोमल कान्ति मय
लीला अनुपम छटा सुरम्य रे ।
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