श्री उदयगिरि भवन के एक कोने में आराम से बैठा था। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी—वह खुशी से हँस रहा था। उसकी हँसी में छुपा था कई निर्दोष लोगों का शोषण, उनके दिलों को तोड़ने और उनकी मेहनत को चुराने का आनंद। उसका दिन पापों से भरा रहता था—लोगों को ठगना, झूठ बोलना, और उनके सपनों को चूर-चूर करना।
इसी समय, नीलयोग टावर में हर्ष अपने जीवन की सरलता और सच्चाई में खोया हुआ था। उसकी हर सुबह लोगों की मदद में बीतती, चाहे वह गरीबों को भोजन देना हो या जरूरतमंदों की सहायता करना। उसकी आस्था थी कि पुण्य का मार्ग ही सच्चे सुख का मार्ग है। उसने जीवन में कभी किसी को धोखा नहीं दिया और न ही किसी को दुख पहुँचाया।
एक दिन, नगर में एक बड़ा मेला लगा। श्रेय और हर्ष दोनों ही मेले में गए। श्रेय ने यहाँ भी अपनी चालाकी और धोखाधड़ी से लोगों को ठगने का मौका देखा। उसने गहनों की नकली दुकान लगाई और लोगों को बेचने के लिए असली गहनों के नाम पर नकली गहने बेचने लगा। वह खुश था कि उसने और लोगों को धोखा दिया।
वहीं दूसरी ओर, हर्ष ने मेले में एक नि:शुल्क चिकित्सा शिविर लगाया, जहां गरीब और जरूरतमंद लोगों को इलाज और दवाइयाँ दी जा रही थीं। उसने अपने जीवन के अनुभव और ज्ञान को लोगों की सेवा में लगाया, और यह देखकर उसकी आत्मा को संतोष मिला।
समाप्ति के बाद, दोनों अपने-अपने घर लौटे। अचानक, एक दिव्य शक्ति ने उनके सामने प्रकट हुई। उसने श्रेय को कहा, “तुम्हारे पापों के कारण तुम्हारा जीवन भरा हुआ है पीड़ा और अशांति से। तुम्हारे पापों का बोझ अब तुम्हें खुद ही उठाना होगा। तुम्हें तुम्हारे कर्मों का सामना करना होगा।”
फिर उसने हर्ष की ओर देखा और कहा, “तुम्हारे पुण्य और अच्छे कर्मों के कारण तुम्हारा जीवन खुशहाल और शांतिपूर्ण रहेगा। तुम्हें तुम्हारे कर्मों का फल अब यहाँ ही मिलेगा और तुम्हारी आत्मा को शांति मिलेगी।”
इसके बाद, दिव्य शक्ति ने दोनों को उनके कर्मों का पूरा हिसाब दिया और उनको समझाया कि पाप और पुण्य की राहें एक दूसरे से भिन्न हैं। पाप की राह में केवल दुख और अशांति है, जबकि पुण्य की राह में सच्ची खुशी और शांति है।
इस तरह, श्रेय और हर्ष ने अपने-अपने कर्मों का फल प्राप्त किया और जीवन की सच्चाई को समझा। पाप और पुण्य के बीच का अंतर साफ हो गया और उन्होंने अपनी राह पर चलने का निश्चय किया।
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