मन तिरता कंठ है कष्टों का
मन फिर भी तृष्णा का स्वामी है
कभी इस छोर कभी उस छोर
मन भ्रम में भी अभिमानी है
नयन-घर बैठे हैं मोती सारे
मन खुद में भीजे बिन पानी है
दो सिरे पकड़कर छिप जाते हैं
इन नैनों के आंसू भी स्वाभिमानी हैं
मन मुझमें ढूंढे है भेद सभी
हर प्रश्न कहे नादानी है
मैं जिस मन से रूष्ट वो मेरा है
नैनों में सजी कहानी है
मन तिरता कंठ है कष्टों का
मन फिर भी मनमानी है………
– शरर ✍️
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