आज उसकी आँख खासी देर से खुली थी। यही वजह थी की उसकी एक नज़र दीवार पे लगी घड़ी की तरफ़ थी तो एक नज़र ख़ुद ही अपने अक्स को देखती आईने पे। ब्लू जीन्स के उपर सफ़ेद रंग की ढीली ढाली टॉप पहने वह अपने हुस्न से आईने को भी शरमाने पे मजबूर कर रही रही। आईना दिल थाम कर उसका अक्स ख़ुद पर ग़ालिब कर रहा था और वह?... ख़ुद से बेनियाज़ अपनी तैयारी में लगी हुई थी। उसके हाथ बड़ी उजलत में जल्दी जल्दी चल रहे थे। उसने जैसे तैसे अपने लंबे बालों पे ब्रश फेरा। कलाई पे घड़ी बांधी, कंधे पे बैग डाला और अपने कमरे से निकल गई।
"अम्मी देर हो रही है... कैंटीन में कुछ खा लुंगी।" उजलत में कह कर घर से निकल गई थी। ज़ायरा बेटी को आवाज़ देती रह गई थी।
"पलवशा.... पलवशा....!" उनके आवाज़ देने का कोई फ़ायदा नहीं था... उसकी गाड़ी की आवाज़ आई थी मतलब के वो जा चुकी थी। ज़ायरा को बेटी की हरकत पे गुस्सा आया था मगर अब खाली घर में किस पे निकाल सकती थी सो टेबल पे पड़ा ग्लास उठा कर पानी पीने लगी। दो दिनों से मिनी भी काम पे नहीं आ रही थी ऐसे में वह पहले से ही झुंझलाई हुई थी।
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अभी पलवशा कॉलेज के अंदर दाख़िल ही हुई थी जब उसे हाफती काँपती अदिति अपनी तरफ़ आते हुए दिखी और उसने जो उस से कहा तो उसके काँधे पे टँगा बैग सरक कर ज़मीन पे जा गिरा।
"पलवशा, सिम्मी ने सुसाइड कर ली।" अदिति ने लगभग रोते हुए उसके होंश उड़ाये थे।
वह बेयकिनी से एक टक अदिति को देख कर रह गई। उसे यकीन करना बहुत मुश्किल हो रहा था। भला कैसे आता उसे यकीन? आख़िर खुदकुशी थी कोई मामूली चीज़ नहीं!
" कहां.....कहां है सिम्मी?" पलवशा ने लड़खड़ाती हुई आवाज में उससे पूछा था।
"हॉस्पिटल... सब उसे सिटी हॉस्पिटल लेकर गए है।" अदिति ने रोते हुए कहा था और पल्वशा ने ये सुनते ही दरवाज़े के बाहर दौड़ लगा दी थी। उसके पीछे पीछे अदिति भी दौड़ी थी। पलवशा ने पार्किंग से अपनी गाड़ी निकाली और अदिति भी उसके साथ सवार हो गई।
दोनों जब हॉस्पिटल पहुंचे तो उनकी मुलाक़ात सिमी के हॉस्टल वालों से हुई जो उसे यहाँ लेकर आए थे।
पलवशा की आँखें मुसलसल बरस रही थी। कुछ दिन पहले की ही तो बात थी जब उसका और सिम्मी का ज़ोरदार झगड़ा हुआ था। पलवशा उसे समझा समझा कर थक चुकी थी... जब सिम्मी की दीवांगी उस से बर्दाशत नहीं हुई तो बहस ने तूल लेकर झगड़े का रूप इख़्तियार कर लिया।
और इस झगड़े की वजह थी मोहब्बत.... नहीं सिर्फ़ मोहब्बत नहीं....बल्कि एक तरफ़ा मोहब्बत!
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"साहिबा बी....जल्दी चलें बड़ी बी आपको कब से बुला रही है।" दरवाज़े पे खड़ी खैरा तीसरी बार साहिबा को बुलाने आई थी। जो पेट के बल अपने मसहरी पर लेटी रिसाला के पन्नों पे लिखे हुर्फ़ों को अपने अंदर ज़हन में जज़्ब कर रही थी।
"आ रही हूँ खैरा... " साहिबा ने भी तीसरी दफ़ा उसे यही जवाब दिया था।
"कब से तो यही सुन रही हूँ... इधर आप नहीं जा रही उधर बड़ी बी मेरी जान को आ रही है। जल्दी कीजिए वरना दर्जिन चली जाएगी।" खैरा ने तंग आकर आखिर झुंझला कर उससे कहा था।
"तुम उसे दो कप चाय और पिला दो खेरा फिर वह नहीं जाएगी।" वैसे ही औन्धी लेटी हुई उसने अपने पैरों को ऊपर उठाया था जिसकी वजह से पीले सलवार की चोड़ी मोहरी नीचे ढलक गई थी और इसकी वजह से उसकी सफेद पिंडलियों नुमाया हो गई थी। यह देख खैरा जल्दी से आगे बढ़ी थी और उसके सलवार की मोहरी को खींचकर ऊपर उठाया था और उसकी पिंडलियों को छुपाया था यह देख साहिबा एकदम से सीधी हो गई थी।
"क्या है खैरा?....क्यों सर पर सवार हो? कहां ना आ रही हूं।" साहिबा ने चिढ़ कर कहा था।
"बीबी जी आप तो आ ही जाएंगी लेकिन अगर आपके आने से पहले बड़ी बी इस कमरे में आ गई और उन्होंने आपकी यह सफेद सफेद पिंडलियों देख ली तो कम से कम 4 घंटे के लिए इस हवेली में कयामत आ जाएगा। उन्होंने कितनी दफा आपसे कहा है कि इन चौड़ी मोहरियों वाले पजामे ना सिलवाया करें। सिलवाती आप है और डाँट बेचारी दर्जिन सुन जाती है।" खैरा ने कहने के साथ-साथ उसके पलंग पर बिखरे सामानों को समेटना शुरू कर दिया था और साहिबा उसकी बातों को नाक पर से मक्खी की तरह उड़ा कर वापस से रिसाले में खो गई थी।
"और यह बाल इन्हें जरा समेट कर रखा करें ....कहीं नजर लग गई तो फिर तरह-तरह के टोटके करती फिरेंगे.... और हमारी नाक में दम अलग।" उसके सामानों को जगह पर रखने के बाद खैरा ने उसे देखा था और अब उसके बालों पर तब्सिरा कर रही थी। मगर अब साहिबा सुन ही कहां रही थी उसका तो पूरा ध्यान रिसाले के एक नवल में चल रही हीरोइन की दर्द भरी इश्क की दास्तान पर उलझा हुआ था। खैरा ने ख़फ़गी से साहिबा को देखा था और नहीं में अपना सर हिलाती एक बार फिर से बड़ी बी के पास ये पैग़ाम लेकर चल दी थी की "साहिबा बी थोड़ी देर में आ रही है।"
अभी थोड़ा ही वक़्त गुज़रा था जब खैरा एक बार फिर से साहिबा के कमरे में आई थी और अपना नाक मूंह थोड़ा चढ़ा कर आई थी क्योंकि उसे पता था इस दफ़ा साहिबा का कैसा रद्दे अमल होने वाला है?
"साहिबा बी इस दफा छोटी बी आपको बुला रही है।" खैरा का इतना कहना था कि साहिबा ने रिसाला को बंद करके एक तरफ फेंका था और बड़े जल्दबाजी में पलंग के नीचे पड़े अपने चप्पल में अपने पर उड़सती हुई कैमरे से निकल गई थी।
***
स्वेट विकिंग जिम वेस्ट पहनने वह पसीने से सराबोर पंचिंग बैग पर लगातार मुक्कों की बरसात किये जा रहा था। जाने किस बात का गुस्सा था...जो वह निकाल रहा था? गुस्सा था या फिर कुछ और ही बात थी?
उसूल....
या फिर...
बेड़ी।
चाहे जो भी था वो उसूल की बेड़ियाँ पहनने वालों में से था। अपने इरादों का पक्का था और शायद इसलिए उसूल परस्त भी.... बिल्कुल अपने खानदान की तरह.... जान चली जाए मगर ज़ुबान की शान ना जाए।
दिल और दिमाग में अलग ही धकड़ पकड़ चल रही थी और साथ ही साथ पंचिंग बैग पे उसका मुक्का भी... और ना जाने कितनी देर तक ये सिलसिला जारी रहता अगर
उसका नाम कोई ना पुकारता।
"यामीर... यामीर...!"
आगे जारी है:-

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