जितना चाहो नभ में उड़ना, उड़ लो तुम
जैसे चाहो जीवन गढ़ना, गढ़ लो तुम।
किंतु वतन की माटी को प्रवासी तुम
भूल, विदेशी मिट्टी में न रमना तुम ॥
गाड़ी, बंगला, दौलत, शौहरत
सारे सुख, कदमों में होंगे ।
मनमाफ़िक जीवन साथी संग
ख़्वाब सुनहरे पलते होंगे ॥
किंतु नशा यह हावी न हो
रख याद, कर्म पथ बढ़ना तुम ।
जितना चाहो नभ में उड़ना, उड़ लो तुम
किंतु विदेशी मिट्टी में न रमना तुम॥
हर फ़िज़ाँ में सौंदर्य होगा
जिस ओर नज़र दौड़ाओगे ।
मस्ती का आलम आसपास
प्यारे अपने तुम पाओगे ॥
किंतु न होगी अपनेपन की
ख़ुशबू, इसे समझना तुम ।
जितना चाहो नभ में उड़ना, उड़ लो तुम
किंतु विदेशी मिट्टी में न रमना तुम॥
ऊँची ऊँची मीनारों में
दिल का खालीपन होगा ।
संगीत भरे महफ़िले दौर में
मन का सूनापन होगा ॥
जननी और जन्मभूमि को
दिल से नहीं भूलना तुम ।
जितना चाहो नभ में उड़ना, उड़ लो तुम
किंतु विदेशी मिट्टी में न रमना तुम॥
मात पिता की डाँट डपट अब
गुजरे कल की बातें हैं ।
भाई बहन की नोंक झोंक
अब बीती बिसरी यादें हैं ॥
गुजरे कल की चुभनभरी
बातों में नहीं उलझना तुम ।
जितना चाहो नभ में उड़ना, उड़ लो तुम
किंतु विदेशी मिट्टी में न रमना तुम॥
कलम से–
प्रेमसिंह ‘गौड़’
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