ऐसी काई है अब मकानों पर
धूप के पांव भी फिसलते हैं
दीवारों पर यादों की परतें
धीरे धीरे सब कुछ ढंकते हैं
रंग उड़ा है, कहानी खोई
वक़्त की मार ने सब कुछ धोई
खिड़कियाँ हैं उदास सी कुछ
जैसे पूछें, "क्या रहा अब कुछ? "
आँगन में सन्नाटा गहरा
पंछियों का भी नहीं है बसेरा
ऐसी काई है अब मकानों पर
धूप के पांव भी फिसलते हैं..
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