दरख़्त के साये में बैठकर मैं भी देख रहा था, कुदरत के लिबास को,
बहती हवा से फिर मांग ही ली, थोड़ी बुलंदी अपनी आवाज़ को,
सोच रहा हूँ सूरज से तेज ही माँग लूँ फ़कत, क्यूँकि,
पानी से तो मांगना है नज़ाकत भरे अंदाज को।
परिंदों से चाह है हौसलों की तालीम दे, क्यूँकि,
जानवरों से तो सीखना है साहस भरे अंदाज़ को।
शबनम की बूँदे भर रही थी मेरे अंदर उल्लास ही उल्लास को,
दरख़्त के साये में बैठकर, मैं भी देख रहा था जब कुदरत के लिबास को ।

Comments