है नाजायज़
खुशी की मांग,
है नाजायज़
कुछ वक्त की मांग।
है नाजायज़
प्यार की मांग,
है नाजायज़
खास लगाव की मांग।
गर सब है नाजायज़
तो जायज़ क्या है,
क्या बेइंतेहा दर्द
नाजायज़ नहीं है,
क्या सुलगती आत्मा
नाजायज़ नहीं है।
कैसे हो गया
मंज़िल का ज़ख़्म,
जब खुशी की मांग
नाजायज़ थी,
जायज़ हो गया
जन्मों का रिश्ता,
जब प्यार की मांग
नाजायज़ ही थी।
कौन करे फैसला
क्या जायज़ और
क्या नाजायज़ हुआ।
Comments