याद आते हैं वो लम्हे,
जब अपने अल्फ़ाज़ छुपा लिया करती थी,
लिखी हुई नज़्मों को फाड़ दिया करती थी।
शायद वो फटी हुई हर कविता,
मेरे जनाज़े पर उतना ही रोएगी,
जितना मेरा रफ़ीक़।
याद आते हैं वो लम्हे,
जब अपने अल्फ़ाज़ छुपा लिया करती थी,
लिखी हुई नज़्मों को फाड़ दिया करती थी।
शायद वो फटी हुई हर कविता,
मेरे जनाज़े पर उतना ही रोएगी,
जितना मेरा रफ़ीक़।
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