"धरती का सपना"
कल रात धरती ने सपना देखा,
खुद को नीला और हरा देखा।
न गाड़ियाँ थीं, न धुआँ कोई,
हर साँस में बस हवा बह रही थी खोई-खोई।
बच्चों के हाथों में फूल थे,
मोबाइल नहीं, बस मिट्टी के उसूल थे।
नदियाँ गा रही थीं लोरी,
चाँदनी बाँध रही थी रोशनी की डोरी।
पर तभी —
एक शोर आया... कचरे का, ट्रैफिक का,
और धरती चौंककर उठ बैठी,
सपना टूट गया,
और फिर से शोर ने उसे लूट लिया।
> पर एक पत्ता फड़फड़ाया,
एक बीज मुस्कराया,
धरती ने धीरे से कहा —
"सपने फिर आएँगे,
अगर तुम जग जाओगे।"
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