चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए।। वैध बिचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए।।
भावार्थ:
चिंता ऐसी डाकिनी है, जो कलेजे को भी काट कर खा जाती है। इसका इलाज वैद्य भी नहीं कर सकता। वह कितनी दवा लगाएगा। वे कहते हैं कि मन के चिंताग्रस्त होने की स्थिति कुछ ऐसी ही होती है, जैसे समुद्र के भीतर आग लगी हो
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