समाज

    Manisha Kandwal
    @Manisha-Kandwal
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    1 Likes | 3 Views | Apr 14, 2025

    मैने लोगों को अपना ज़मीर बदलते हुए देखा है,

    लोगों को कायरता की सीढ़ी चढ़ते हुए देखा है,
    देखा है लोगों को आत्म सम्मान की नीलामी करते हुए ,
    और कई नकाबों को चार दिवारी में पनपते देखा है।

    मैंने आंसुओं को ज़हर बनते देखा है,
    सूरज की लालिमा को किसी का कफ़न बनते देखा है,
    देखा है मैंने, अपनों को पराया होते हुए,
    मैंने दौलत को लोगों का सगा होते हुए देखा है।

    माना ये समाज ऐसे ही काम करता है,
    इन्हीं दीमकी ढांचों को अपना महल कहता है,
    अपनी इन खोखली दीवारों पर घमंड करता है,
    और अपने अस्तित्व को एक शानदार सोच का नाम देता है।

    मगर मैं इस समाज का हिस्सा नहीं।
    क्योंकि अगर ऐसा होता
    तो मैं खुद को इस महल के
    किसी सुकून भरे कमरे में पाती ,
    जहां हर कोई हाथों में झूठ लिए फिरता है
    मैं खुश होती, दूसरों की हार देखकर,
    मुझे नकाब पहनना भी आता
    जिसे जब चाहो, तब बदला जा सकता था।

    मगर मैं इस समाज का हिस्सा नहीं,
    क्योंकि अगर ऐसा होता
    तो मैं खुद को इस महल के किसी
    घुटन भरे कमरे में न पाती
    जहां मुझे कई नकाब पहनने पड़ते
    झूठ के, फरेब के, चापलूसी के,
    मुझे उन निगाहों में हैवानियत न दिखती
    जो सर से पाऊं तक
    बिना हाथ फेरे ही
    बदन को छू लिया करते हैं।

    मुझे इस समाज से नफ़रत न होती
    जो सिर्फ मतलबी बुनियाद पर टीका है,
    और अपने वजूद को बचाने के लिए
    अपना ईमान बेच रहा है।

    मैं खुश होती ,
    एक समाज का हिस्सा बनकर
    जहां सच और झूठ में फर्क समझा
    और अपनाया जा सकता।
    जहां चेहरे पर
    मासूमियत का नकाब न चढ़ाया जा सकता।
    जहां आंखों से बदन को
    छू लेने वालों की आँखें नोच ली जाती ।
    जहां दूसरों के दुख को
    अपनों के प्यार से भूल दिया जाता।

    में खुश होती
    एक ऐसे समाज का हिस्सा बनकर।