कई दफ़ा हम उनके बारे में सोचते है,
कभी कुछ ज्यादा, तो किसी शाम कुछ कम।
हर गुजरतें लम्हें के साथ हम शायद खुदी को खो बैठते है,
अपने सपनों की हसीन दुनिया में हम उन्हें बेवक्त, बेतहाशा, बेकरारी से मिलते हैं,
और शायद इसलिए क्योंकि सपनों की दुनिया, यह तो हमारी हैं — मेरी, तुम्हारी, हम सब की अपनी।
अगर यहा भी समाज के बंधनो के संग रहना हो तो फिर क्या ही कहना।
हमारे सिलसिले भी किसी अनकही ग़ज़ल जैसे हैं,
जिसका हर शेर मुकम्मल होते-होते अधूरा रह जाता है,
जैसे कोई ख़त जो लिखकर भी भेजा नहीं गया,
या कोई धड़कन जो हर बार नाम लेकर भी ख़ामोश रह गई।
हमारा किसी रोज़ उनकी एक झलक के लिए तरसना,
उनके करीब होकर भी दूर रह जाना,
और किसी बेख़बर लम्हे में,
उनकी हंसी को अपनी ख़ुशी मान लेना,
लोगों से नज़रें चुराकर उनसे नज़रें मिलना,
और दोनों की नज़रों के मिलने पर दुनिया का जैसे थम जाना।
पूरा दिन यही सिलसिला चलता है,
और रात को थके-हारे, बोझिल से दिन को कोसते हुए,
हम अपनी ही उलझनों में घिर जाते हैं,
और फिर एक दफ़ा हम उनके बारे में सोचते हैं,
कभी कुछ ज़्यादा, तो किसी शाम कुछ कम।
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