कला से कहूं
कला से चुने
कलियां मेरे बागों से
कलियां उसको देनी है
खिलती कलियां जिससे बागों में
कल - कल, कर कर निकल गईं
सदियों सी कल्लायी रातें
गलियों सी वो गुजर गई
फिर कोलाहल हुइ है रातें
बातों से बातों में उलझी
जुल्फें खोल देखना चाहते
रास नहीं आती हैं उसको
फिरसे वही पुरानी बातें
कहूं कह कर कह दिया
अंधेरी रातों की बाती
जलता देख ये जिया
सदा परेशानी
मनमानी
देख उसे फिर मुस्कुराते
मंत्रों से मन की बातों का
सार है बस तेरी आंखें
जला दिया पर आग हो गई
कल - जले आज राख हैं
देखो सही कहीं से
कहीं न जाए बातें
कला से कही
कली चुने
सहेली चुने
प्रियतम हैं चाहते
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