मैं एक मूक परिंदा हूँ, जाने कब तक जिंदा हूँ?
मेरा भी परिवार है, मेरे तन में भी प्राण है
मेरे रक्त का प्यासा हुआ, जाने क्यों इंसान है।
क्या खत्म हो गई वनस्पति, या खत्म हो गया दयाभाव?
क्या संयम नहीं अब रसना पर, या मानवता का हुआ अभाव
जिससे रक्षा की आशा थी, उसने ही लहूलुहान किया
बेरहमी से काटा छीला, गर्दन पर खंजर तान दिया
कहां गया वो प्राणी-प्रेम, जो बुद्ध और महावीर में था ?
क्यों नहीं भाता वो स्वाद, जो अब तक माखन-खीर में था
देख जरा मेरी आंखों में, क्या मैं जी नहीं सकता
मैं भी साँसे लेता हूँ, क्या मेरा दिल नहीं धड़कता ?
हम निर्दोषों की हत्या पर, मानवता पर शर्मिंदा हूं
मैं एक मूक परिंदा हूँ,
- मयंक बैद
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