मेरा है ही क्या?

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    0 Likes | 9 Views | Dec 20, 2024
    मेरा है ही क्या? 
    न जिस्म, न तिलिस्म, न रक्त, न वक़्त मेरा, 
    बस आत्मा रहा है अपना, 
     
    व्यथा में पीड़ा मेरी है, 
    जिस्म का चोट मुझमें, 
    रेत हूँ हवा से बिखर जाता हूँ, 
    बस परमात्मा रहा है अपना, 
     
    माँ का वात्सल्य जीना सिखाता है, 
    पिता के डाँट से दुनिया पहचानता हूँ, 
    दुनिया में तीसरा हुनर भी सखा का है, 
    प्रकृति के दम से ही शायद जानता हूँ, 
     
    ये चलते कलम के शब्द भी किसी व्याकरण के हैं, 
    कलम उकेर रही काग़ज़ पर वो भी माँ धरा का है, 
    आत्मा के कण कण में बैठे है कृष्ण, 
    मैं तो जी रहा हूँ केवल, सब तो सर्वेश्वरा का है, 
     
    सूरज चमक जाए, तो मेरी आँखें किसी काम आती हैं, 
    दूर कही पर्वत से पिघलती है गंगा तो मुझे बनाती है, 
    दो लकड़िया अपने तन पर तपिश बर्दाश्त करती है, 
    तब कहीं किसी अन्न की पकने की सुगंध आती है, 
     
    सोचो पवन न हो पावन तो मेरी नासिका किस काम की, 
    न हो तथ्य किसी सत्य में तो मेरे कान कुछ भी नही, 
    मैं प्रकृति का एक छोटा प्यादा हूँ बस, 
    अस्तित्व न हो पंचतत्त्व का तो इंसान कुछ भी नही, 
     
    दुनिया में हज़ार रश्क़ पल रहे है अब, 
    दुनिया अहं में जीना कैसे हो पायेगा मुझसे, 
    मैं किसी बर्फ़ पे चढ़ किसी नदी में उतर जाऊंगा, 
    वो बर्फ़ भी पानी हो जायेगा मुझसे, 
     
    बस जिस्म मिली है जीवन जीने को, 
    खुद का ख़ुद भी नही, ये नाम भी आत्मा का है, 
    ज़माना इतराए शायद भले किसी नाम पर,  
    सुन जमाना तेरा है ही क्या? 
    रेत हूँ, बनूँगा तो देवता की मूरत में काम आऊंगा, 
    या फिर बिखरूंगा और चरणों के धूल हो जाऊंगा, 
     
    मैं रेत हूँ किसी घनेरी शाम में मुझमे समायेगा आसमां, 
    या फिर किसी साज़ पे होगी थाप तो उड़ जाऊंगा हवा में, 
    किसी का घर, समर या सफ़र कुछ भी बसेरा है ही क्या? 
    मैं तो जहाँ जाऊँ उसके रंग में हूँ, वरना मेरा है ही क्या? 
    वरना मेरा है ही क्या?? 
     
     
    Shashank 'Subhash'
    17.02.2023