सोचता हूँ लौट आओगी तुम
बैठता हूँ जब कभी तन्हा रातों को
उदास देखकर चाँद को तस्सली दे;
कहता हूँ के लौट आओगी तुम
जब जब ज़ख़्म हरा होता है दिल का
इंतज़ार का मरहम लगा देता हूँ उस पर
एक तबस्सुम चेहरे पर लिए अपने
सोचता हूँ के लौट आओगी तुम
बेवक्त बिछड़ गए हो जो ऐसे तुम
बरसात भी पतझड़ सी लगने लगी है
खैर मोहब्बत का ग़म लिए हुए मैं
सोचता हूँ के लौट आओगी तुम
हर मुराद मुकम्मल हो जरूरी नहीं
हसरत फ़िर भी तेरे दीद की लिए हुए
इबादत में हर एक दुआ में तुझे माँगते
सोचता हूँ के लौट आओगी तुम
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