नशा नहीं मुझे मदिरा का मैं नैनों से पीता हूँ
हाँ इन्हीं अँखियो के ज़रिये मैं तन्हा जी लेता हूँ,
ना होते हुए भी सामने सर्वत्र उसे ही पाता हूँ
बार हर बार मैं ग़लती यही दोहराता हूँ..
चढ़ रहा है सुरूर खोके उसके ख्यालो में,
डूब रहा हूँ मद में इन अनसुलझे सवालों में..
जाने कैसे ज़ी लेता हूँ इन खामोश लम्हों में,
गुज़र जाती है हर शाम बिना बोल के अल्फाज़ो में..
ढाल के अपने अक्स को उसमें जब चकोर बन जाता हूँ,
देखता हूँ उसे और उसमें एक रजनीकर को पाता हूँ!!
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