माँ
तुम्ही शब्द हो तुम्ही शक्ति हो कैसे कहूँ कि तुम कैसी हो।
माँ तुम एकदम माँ जैसी हो।
माँ का कोई दिवस नही है, सारे दिन माँ के होते है।
जिसकी मीठी लोरी सुनकर बच्चे गोदी में सोते है।।
ब्रम्हा तो केवल रचता है, पालन तो तुम ही करती हो।
हरि के रूप में आ करके चुन चुन के पीड़ा हरती हो।
सब जग बदला, बच्चे बदले पर तुम तनिक नही बदली हो।
तुम्ही शब्द हो तुम्ही शक्ति हो कैसे कहूँ कि तुम कैसी हो।
माँ तुम एकदम माँ जैसी हो।
माँ से कोमल शब्द–कोश में शब्द नहीं होते है सच है
माँ की ममता से बड़ी न कोई ममता है,जग में ये सच है।
जीवन के खातिर जो सांस है एक शब्द में माँ कहते है।
जिस धरती पर जन्म लिया है उस भू को भी माँ कहते है।
तुलसी, नदी, गाय, गंगा मिल जो होता, होती वैसी हो।
तुम्ही शब्द हो तुम्ही शक्ति हो कैसे कहूँ कि तुम कैसी हो।
माँ तुम एकदम माँ जैसी हो।
जाने क्यों छोटे लगते है, तुझे देखकर करुणा सागर।
बंध जाते थे एक ओखली में, माँ के आगे नटवर नागर।
ज्ञान धरा ही रह जाता है जब तुम धार, धरा बनती हो।
अपने ही गुरुत्व के कारण दुग्ध धार बन तुम बहती हो।
बालक तेरे केश उखाड़े पैर से मारे तुम हंसती हो।
तुम्ही शब्द हो तुम्ही शक्ति हो कैसे कहूँ कि तुम कैसी हो।
माँ तुम एकदम माँ जैसी हो।
निराशा को आशा में बदले आशा को विश्वाश में बदले।
विश्वाश को श्रेष्ठ करे वो, और उसे परिवेश में बदले।,
परिवेश को भाषा करती,भाषा को परिभाषा करके।
जीवन का तुम पाठ पढ़ाती आदेशो को भाषा करके।
किससे तेरी तुलना दू माँ किसे कंहू इस के जैसी हो।
तुम्ही शब्द हो तुम्ही शक्ति हो कैसे कहूँ कि तुम कैसी हो।
माँ तुम एकदम माँ जैसी हो।
अजय कुमार शुक्ला “मधुकर”
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