मैं एक पथिक अबोध,
शिथिल होते पैरों को बढ़ाता
था प्रश्नमय।
अकस्मात्,
शनैः-शनैः वात आया,
भर गया प्रत्याशा से इस उर को
और मैं विह्वल, अपरंच, उड़ चला
हवा के संग।
अनुग्रहित!
वह मेरी परिधि-
स्निग्धता से परिपूर्ण,
मेरे स्पंदित मन को आश्रय देती,
और मैं इस सीमाहीन नभ में उड़ता-
प्रणत शीर्ष, अपरिमित निस्पंदता;
विलक्षित पटल की ओर जा रहा था।
आलिंगन!
वह ले चल रही थी मेरे मलिन हृदय को
नव- रंगों से आपूर्ण गगन के निकेतन में,
और विस्तृत नभ का हर कोना
मेरे आगमन पर
उल्लासित था।
आनंदित!
मुझे उसके स्पर्श की अनुभूति थी,
मुझे उसकी उपस्थिति का आभान था,
अतएव, व्योम के प्रकाश में
अंतस मंद- मंद प्रफुल्लित हुआ जा रहा था।
कृतार्थ!
अशब्द मैं, करुणामयी वो।
क्या मुझे भान था कि
उसकी व्याप्ति मुझ निर्बोध को
प्रबोधित कर देगी?-
मैं तो प्रेम की खोज में था
भटका हुआ, वेदना में
और तब, उसके बढ़ते हाथों ने
मुझे थाम कर झंकझोरा,
और फिर एक शांति जो छाई
मैं हो गया मुक्त, हो गया धन्य।
सुखोन्माद!
वह हर कदम पर मेरे साथ थी,
वह हवा, अपरिवर्तित,
एक मृदुल संगीत की तरह
मुझे थामे हुए थी।
इस तरह,
एक अनुभव बनता चला गया,
और मैं उस में बहता चला गया।
जीवंत!
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